Saturday, December 12, 2015

अवसाद Depression

डॉ अमित जी अनिद्रा के बारे में भी बताऊंगा अभी मै अवसाद के बारे में बात करता हूँ। कई बार मन अवसाद ग्रस्त होता है और अपने आप ठीक हो जाता है | लेकिन कई बार अवसाद मन में कहीं गहरे तक बैठ जाता है | इस के तब लक्षण दिखायी देते हैं ---

--दुःख का लगातार अनुभव

---लगातार उर्जा में कमी

--नींद में कठिनाई

--भूख में कमी

--वजन का घटना

---सिरदर्द का रहना लगातार

---अपच कब्ज रहना

---बात बात पर रोना और आत्महत्या की इच्छा होना |


इसके दुष्प्रभाव



-हृदय जन्य बीमारीयाँ


-अस्थमा का दौरा आना


-त्वचा की बीमारी होना


-शरीर मे खून की कमी हो जाना


-चश्मा लगना


-और भी जाने कई सारी बीमारीयाँ।



अब यह किसी एक वर्ग को हो यह जरुरी नही है। पढने वाले बच्चे परीक्षा के डर से , या नम्बर कम आने के डर से इस अवस्था में आ जाते हैं .महिलायें पुरूष कोई भी किस समय इस का शिकार हो जाए कौन जाने।

आयुर्वेदिक चिकित्सा में दवाई के बिना रोगी को ठीक करने की कोशिश होती है।
कई तरह के योगासन ,प्राणायाम ,संतुलित आहार पेट पर मिटटी की पट्टी ,रीढ़ स्नान ,आदि ऐसे कई उपाय है जिनसे पुनः सामन्य जीवन जीया जा सकता है | यह सभी उपाय किसी आयुर्वेदिक
मनोचिकित्सक की देख रेख में करने चाहिए |
अक्सर कई बार हम अवसाद ग्रस्त रोगी की बात को अनसुना कर देते हैं | वास्तव में ऐसा होना नही चाहिए , उसकी बात सुने उसकी मदद करे ताकि वह आत्महत्या जैसा विचार अपने दिल में पनपने न दे | उसको यह विश्वास दिलाये कि आप उसके साथ है वह अकेला नही है | खुली हवा अच्छा वातावरण ,उसमें उसका आत्मविश्वास वापिस ला सकता है।

मैंने एक सेल्फ मेडिटेशन पैकेज बनाया है जो बहूत हद तक कारगर है, अगर किसी कारणवश यह काम नही करता फ़िर आपको रेगुलर मेडिटेशन कोर्स सीखना पड सकता है।


प्रथम चरण


आराम से बैठ या लेट जायें... ५ बार गहरी साँस ले, आँखे हल्की बन्द करें, और बस कुछ देर के लिये अपने दिमाग मे आने जाने वाले विचारो को देखते रहें। उनको पूरी तरह से महसूस करें। फ़िर ५ बार गहरी साँस ले उठ जाये। कुछ दिन तक यह प्रयोग करें।



दूसरा चरण


आराम से बैठ या लेट जायें... ५ बार गहरी साँस ले, आँखे हल्की बन्द करें, अब याद करे उन बूरे दिनो को, जिनके कारण आप परेशान हैं, जितना बूरा वक्त बीता है सबको... और सोचे कि ऐसा नही होता तो क्या होता? फ़िर ५ बार गहरी साँस ले और उठ जायें।


तीसरा चरण


आराम से बैठ या लेट जायें... ५ बार गहरी साँस ले, आँखे हल्की बन्द करें, अब अपने अच्छे दिनो को याद करें, हर इन्सान के जीवन मे अच्छे और बूरे दिन दोनो ही आते हैं, बूरे पर तो हम याद कर चूके हैं, अब अच्छे पलो की बारी है, जितना याद आये याद करें, कोई जल्दी नही है, आराम से धीरे धीरे आगे बढे और बढते जायें, फ़िर ५ बार गहरी साँस ले और उठ जायें।


अन्तिम चरण


अब तक आप समझ गये होंगे कि निराश होने वाली कोई बात नही है, जिन्दगी मे अभी आशा कि किरण बची है, तो अपने उस किरण को सोच का रूप दे डालिये।


आराम से बैठ या लेट जायें... ५ बार गहरी साँस ले, आँखे हल्की बन्द करें, अब अपने उस सोच को मन मे बार बार दूहराते जाईये.. जितना हो सके.. कोई जल्दी नही है.. आराम से... फ़िर ५ बार गहरी साँस ले और उठ जाईये। अब यही अन्तिम चरण आपको रोज करना है :)


मेडिटेशन का यह रेखाचित्र मात्र था.. आप अपने लिये सही शब्दो का चुनाव करे, या कोई परेशानी हो तो हमसे सम्पर्क करें।


अगर कोई इन्सान अत्यन्त अवसाद मे डूबा है तो बेहतर होगा कि उसको पहले ऊर्जा चिकित्सक से मिलवायें, उसके बाद मेडिटेशन करायें।

डॉ कुलदीप सिंह चौहान,
आयुर्वेद मनोचिकित्सक एवं पंचकर्म चिकित्सक,
मर्म-थेरापिस्ट।
9411036703
Ayurjeevanam. blogspot.com
www.Ayurjeevanam.in
Therapistmarma.blogspot.com

Common Psychological diseases

हेल्थ टुडे परिवार के सदस्यों कल की जानकारी को आगे बढ़ाते हुए कुछ और मानसिक रोगों की जानकारी प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। यदि किसी को कोई लक्षण स्वयं में महसूस होते हो तो मुझसे या फिर किसी मनोचिकित्सक से सलाह जरूर ले लेकिन अपनी तरफ से कोई धारणा ना बनायें।
डॉ कुलदीप सिंह चौहान, आयुर्वेदिक मनोचिकित्सक।

हिस्टिरिया-

हिस्टिरिया का मानसिक रोग प्रायः अतृप्त कामेच्छा से सम्बन्ध रखता है। अविवाहित स्त्रियाँ या निःसंतान वधुएँ इसकी शिकार बनती हैं। शारीरिक कमजोरी, अत्यधिक घबराहट, उत्तेजना, उद्वेग, आकस्मिक दुःख मस्तिष्क के संतुलन को अस्त-व्यस्त कर देते हैं और अज्ञात चेतना की अतृप्त वासनाएं भयंकर विस्फोट कर देती हैं।

अन्यमनस्कता-

इस प्रकार की भ्रमित मानसिक स्थिति में रोगी, न उत्तेजित रहता है, न निरुत्साहित। वह बिल्कुल अन्यमनस्क रहता है। उसका मन शून्य मय हो जाता है। चेतना विचार, बुद्धि कुछ काल के निमित्त बिल्कुल स्थिर हो जाती है। जहाँ बैठा दो, वहीं निष्प्रभ, निश्चेष्ट बैठा रहेगा। न कुछ इच्छा प्रकट करेगा न अभिलाषा। उसकी मुख मुद्रा से यह स्पष्ट नहीं होता कि आखिर वह चाहता क्या है। यदि उससे कुछ पूछो तो वह सुनी अनसुनी कर देता है या बड़ा बेढंगा, अपूर्ण, अस्पष्ट, निरर्थक उत्तर देता है। भिन्न-भिन्न प्रकार की मानसिक न्यूनताएँ, मस्तिष्क के विभिन्न क्रिया-केन्द्रों की समुचित परिपक्वता न होने से यह व्याधि उत्पन्न होती है।

आत्मग्लानि-

“हमसे कोई महापाप हो गया, अब मोक्ष नहीं हो सकता, मैंने सर्वनाश कर लिया, इतनी भारी गलती करके मुझे जीवित नहीं रहना चाहिए”- ऐसे विचारों को लेकर रोगी बड़ा पछताता दुःखी होता है। कुछ दिन पूर्व हमारे पास एक ऐसा ही रोगिणी आई थी जिसे बीमारी में कुछ अपवित्र दवाइयाँ दी गई थीं। वह कहा करती थी “मैंने बकरे खाये हैं, उनकी हड्डियों को चबाया है, अक् थू अक् थू।” ऐसा कहकर वह थूकती और हलक में उँगली डालकर उल्टी करने का उपक्रम करती।

आत्म-हीनता (Inferiority)-

अनेक व्यक्ति इतने संकोची, लज्जाशील होते हैं कि महान अपराधी की तरह चुप्पी धारण किए रहते हैं और हमेशा नीची दृष्टि किए रहते हैं। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ करता है कि संसार उनकी प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक हाव-भाव, कपड़े, जूते, टोपी सब कुछ घूर-घूर कर देख रहा है, जैसे पत्थर-पत्थर में हजारों नेत्र हों और सबकी सब उसे हड़प जाने को प्रस्तुत हों। आत्महीनता का प्रधान कारण भय है। रोगी के मानसिक संस्थान में उसका अंश अत्यन्त अधिक मात्रा में होता है। वह सब प्रकार की सभा समाजों, मनुष्यों की भीड़ से हटता है, हमेशा शर्मिंदा रहता है और अपने आपको दीन, हीन, दुर्बल, क्षुद्र, अपराधी मानता है। यह बड़ा अविश्वासी होता है। आत्महीनता के लक्षण ये हैं- आंखें नीची कर लेना, सकपका जाना, चेहरे पर सुर्खी दौड़ जाना, घबरा सा जाना, किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाना, चुपचाप दूसरे की अनुचित बातें स्वीकार कर लेना, उदासीन गंभीरता धारण कर लेना। ऐसे रोगी को अपने छोटे-मोटे दोष अक्षम्य अपराध की तरह दीखने लगते हैं और कई बार दारुण मानसिक यातना भोग कर रोगी आत्महत्या तक कर लेता है।

कायरता-

एक प्रकार की कुत्सित मानसिक दुर्बलता है। ऐसा व्यक्ति प्रत्येक कार्य को संदिग्ध चित्त से सम्पन्न करता है। मनोवैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि कायरता जन्मजात दुर्गुण नहीं है। कायरता एक प्रकार की आदत है और क्रमशः धीरे-धीरे और आदतों के समान उत्पन्न होती है। अव्यक्त प्रदेश में अनेक वर्षों में संकलित अशुभ संस्कारों का परिणाम है। कायरता तथा निराशावाद साथ-साथ रहती हैं। कायर मनुष्य जरा-जरा सी बातों में दब कर नर्क की यन्त्रणाएँ भोगा करता है।

भय-

परमात्मा ने मनुष्य को वीर और साहसी बनाया था किन्तु संसार में अनेक मनोजनित शंकाओं ने उसे डरपोक बना डाला है। प्रत्येक असफलता और प्रायः सब दोषों के अन्त में किसी न किसी प्रकार का भय मिला रहता है। भय शंका का किला है। भय के कारण मस्तिष्क की कार्यवाहिनी शक्ति विकृत अथवा संकुचित हो जाती है इससे केन्द्रित मंडल में उत्तेजना होती है और चक्कर आना, अपचन, मस्तिष्क पीड़ा, अस्थिरता, उत्पन्न होती है। जरा-जरा सी प्रतिकूलता से वह उद्विग्न हो जाता है और उसके दिमाग में क्रोध, ईर्ष्या, चिंता, अशाँति, घबराहट, चंचलता, आशंका, अनिष्ट प्रस्फुटित हो जाते हैं।

सनक (श्वष्ष्द्गठ्ठह्लह्द्बष्द्बह्लब्)-

सिरड़ीपन, बोरहा पन अव्यक्त के अशुद्ध संस्कारों के परिणाम स्वरूप अस्थिर चित्तवालों में उत्पन्न होता है। यह शैशवावस्था की दबाई गई प्रवृत्तियाँ को प्रकाशन है। आरम्भिक दमन क्रिया से (Repression) अज्ञात चेतना में कुछ भावना ग्रन्थियाँ बनती हैं और ये सुप्त मनोवृत्तियाँ समय-समय पर उमड़ कर ऊपर जाग्रत चेतना की सतह पर पहुँचने की चेष्टा करती हैं। उन्हें गुप्तवेश धारण करना पड़ता है। सनक इन्हीं दलित भावनाओं का निदर्शन है। वास्तव में यह हमारी अज्ञात चेतना से उठे हुए मनोविकारों को समूह मात्र है।

कामातुरता (Sexual Obsession)-

कितने ही व्यक्तियों के मन में कामुकता के विकार बड़े तीव्र उठते हैं। वे क्षण भर में समस्त पवित्रता, ज्ञान, शिक्षा इत्यादि भूल जाते हैं और हृदय मलीन विचारों से आवृत्त हो जाता है। कामविकार एवं नैतिकता के भीतरी संघर्ष से मनुष्य छटपटाने लगता है। अन्तर्द्वन्द्व परोक्ष रूप में विभिन्न रूपों में प्रस्फुटित होता है और दैनिक कार्यों में अनेक विकृतियां उत्पन्न होती हैं। अतृप्त कामवासना, प्रमाद नपुँसकता, वैराग्य की व्याधियाँ सृजन करती है। विकारमय अनिष्ट विचार मानसिक दुर्बलता की वृद्धि करते हैं। भद्दे मजाक, गालियाँ, गुप्ताँग का बारंबार स्पर्श करना, अश्लील व्यवहार, गंदी चेष्टाएँ, अति बनाव शृंगार, गाने गाना, स्वप्नदोष, बारबार मूत्र त्याग, मुंहासे, दुराचार, चित्त का अति चंचल रहना, क्षण-क्षण अपने विचारों का परिवर्तन करना, दिमाग में गर्मी छा जाना, नेत्रों में जलन, क्षण भर में रुष्ट एवं क्षणभर में प्रसन्न हो जाना, माथे, कमर तथा मेरुदंड में दर्द, दाँत के मसूड़े फूलना। शरीर से बदबू निकलना, कँपकँपी आना, हाथ पैर में सनसनी दौड़ जाना, अज्ञात चेतना में छुपी हुई अतृप्त अशान्त कुचली हुई वासनाओं से उत्पन्न होते हैं। पर छिद्रान्वेषण तथा (Projection) आरोप-

अनेक व्यक्ति पर दोषदर्शन, परनिंदा, बैर, ईर्ष्या की भट्टी में भस्मीभूत हुआ करते हैं। वे अपने मानसिक दोष दूसरों में परिलक्षित देखते हैं और उन दूसरों के कल्पित दोषों को अपनी कठिनता एवं असफलता का मूल कारण मानते हैं। यह स्वार्थ का नग्न स्वरूप है। इस मनोवृत्ति के कारण हम निरन्तर अपने दोष दूसरों पर आरोपित किया करते हैं अनेक व्यक्ति अकारण ही द्वेषी होते हैं यों ही संत-साधु-शास्त्र इत्यादि का विरोध किया करते हैं। ईश्वर का खंडन करने वाले, दम्भी, अभिमानी, पर निंदा परायण, अन्यायकारी व्यक्ति एक भयंकर मानसिक व्याधि के शिकार हैं, उन्हें चहुँ ओर दोष, न्यूनता, कमी ही दृष्टिगोचर होती हैं। यह मनोवृत्ति स्वार्थपूर्ण ईर्ष्या की सन्तान हैं तमोगुणी प्रधान व्यक्ति इससे परेशान रहते हैं।

विकृत मानसिक प्रवृत्ति (Obsessive neuroses)

यह मानसिक कष्ट मस्तिष्क के केन्द्रों में निर्बलता होने से उद्भूत होता है। रोगी का अंतर्जगत अत्यन्त आवेग मय होता है किन्तु वह क्षोभ में निरन्तर जला करता है। जरा-जरा सी बातों में शंका, दुःख, संदेह उसके मानसिक केन्द्रों को घोर अंधकाराच्छादित बना कर उसे परेशान रखते हैं। अज्ञानावस्था में ही उसके मिथ्या डर, शोक, पीड़ा उत्थित होकर उसे अशान्त और विक्षुब्ध रखते हैं। चेतना में किसी विरोधी शंका के प्रविष्ट होते ही वह कुढ़ने लगता है और अस्त-व्यस्त हो जाता है।

गुमसुम हो जाना (Apathy)-

भयंकर मानसिक आघात से यकायक मानसिक शून्यता उत्पन्न हो जाती है। रोगी का अन्तःकरण अकस्मात अंधकारमय हो जाता है। चेतना, बुद्धि, विवेक, तर्क, प्रेरणा अपने कार्य कुछ देर के लिए बन्द कर देती हैं और वह किंकर्तव्य विमूढ़ सा होकर न बोलता है, न क्रिया करता है, न उसे संसार में ही कुछ दीखता है। यद्यपि उसके नेत्र खुले रहते हैं किन्तु वह खोया-खोया सा प्रतीत होता है- जैसे उसके मस्तिष्क के सूक्ष्म केन्द्रों को लकवा मार गया हो। कभी-कभी ऐसे मानसिक आघातों से रोगी जीवन पर्यन्त शून्य मनस्क रह सकता है। इस विकृति में श्रवण, स्मरण एवं ग्रहण शक्ति का ह्रास हो जाता है।

मानसिक थकावट (Mental over-strain)-

अन्तर्द्वन्द्व, चिंता, उद्वेग, निरंतर एक ही प्रकार का मानसिक कार्य करते रहना। उसे बोझ समझ कर करते रहना, अस्त-व्यस्त मानसिक अवस्था में पढ़ना] लिखना, अधिक बोलना, एकान्त स्थान में लगातार बैठ कर पढ़ते रहने से मानसिक थकावट उत्पन्न होती है। सर में दर्द, मन में निष्क्रियता होने लगती है, किसी काम में जी नहीं लगता। रोगी जो कार्य हाथ में लेता है उसी से जी उचटता है। वह इधर-उधर निष्प्रभ सा घूमता है। उसे ऐसा अनुभव होता है जैसा पर्वतों का बोझ उसके मन पर हो। जीवन के वे क्षण उसे बोझ स्वरूप प्रतीत होते हैं। कई दिन तक वह विक्षुब्ध, उद्विग्न एवं चिंतित सा दिखाई देता है।

भयंकर स्वप्न-

स्वप्न हमारी हार्दिक इच्छाओं सूक्ष्म भावनाओं, अनुभूतियों, अतृप्त अपूर्ण मनोवांछाओं, यातनाओं, शारीरिक कष्टों का क्रियाशील अस्तित्व है। हमारी दलित वासनाओं से इसका चिरस्थायी, अटूट तथा शाश्वत सम्बन्ध है। यह एक ऐसा दर्पण है जिसके विश्लेषण द्वारा हमें मनुष्य के मानसिक कष्टों का परिचय हो सकता है। जब मानव, दानवीय यातनाओं, शारीरिक कष्टों और साँसारिक चिंताओं से आवृत रहता है तो उसे बड़े-बड़े भयंकर स्वप्न दीखते हैं, वह चिल्लाने की कोशिश करता है, घिग्घी बँध जाती है और उसे अत्यधिक मानसिक क्लेश होता है। दुश्चिंता, शारीरिक अपवित्रता, मद्य माँस, तामसिक भोजन, अतृप्त कामेच्छा, कल्पित भय, भूत प्रेतों का डर, तंग कपड़े, मानसिक दुर्बलता, रौद्र स्वप्नों के प्रधान कारण हैं।

प्रमाद (Insanity)-

इस रोग में रोगी का मानसिक संतुलन विकृत हो जाता है। पागल यह नहीं समझता कि वह रोगी है। उसे यह अनुभव तक नहीं होता कि उसके मानसिक क्षेत्र में कुछ परिवर्तन हुआ है। प्रमाद अधिकतर किसी भयंकर आघात (Shock) जैसे किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु, व्यापार में भारी हानि, अत्यधिक भय, बुरा व्यवहार, अतृप्त कामेच्छा, प्रेम में सन्देह, पति के द्वारा अत्याचार इत्यादि कारणों से होता है। अव्यक्त की क्रान्तिकारी वासनाएँ विद्रोही होकर अकस्मात विद्रोही बन जाती हैं।

निद्रित अवस्था में चलना फिरना (Somnambulism)-

रोगी निद्रावस्था में ही चलता फिरता, उठता बैठता, तथा अनेक आश्चर्यजनक कार्यों को सुचारु रूप से सम्पन्न करता है जिनके सम्बन्ध में कोई जानकारी उसे जाग्रत अवस्था में नहीं रहती। डा. मेचनिकाफ ने सैम्बुलिज्म के एक रोगी का वातान्त लिखा है-”जो एक बार किसी अज्ञात आशंका से भयभीत होकर पनाले के पाइप को पकड़ता हुआ एक बहुत ऊँचे मकान की छत पर चढ़ गया तथा एक मुंडेर पर से दूसरे पर बन्दरों की तरह कूदता हुआ दूसरे मकान की मुँडेर पर कूद गया। इसके अनन्तर जिस प्रकार ऊपर चढ़ा था, उसी प्रकार बन्दर की तरह बिना किसी खरोंच के नीचे उतर आया। न तनिक भी उसका पाँव फिसला, न किसी प्रकार की चोट आई। इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सोम्नेम्बुलिज्म की अवस्था में उस व्यक्ति की अज्ञात चेतना में लाखों वर्षों से दबे हुए मनुष्य के वानर जातीय संस्कार जग पड़े थे।”

अनिद्रा या इन्सोमिनिया-

एडलर महाशय अनिद्रा को स्वयं तो रोग नहीं मानते किन्तु आने वाले किसी भयंकर मानसिक कष्ट की उपस्थिति का लक्षण मानते हैं। रोगी अत्यन्त चिंतित, विक्षुब्ध एवं परेशान रहता है और बिस्तर पर पड़े-पड़े निद्रा की प्रतीक्षा देखा करता है। प्रायः इन्सौमिनिया का रोगी अपने आन्तरिक क्लेश इतने बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन करता है कि चिकित्सक को संदेह हो जाता है कि कहीं वह केवल बहाना तो नहीं कर रहा। अत्यधिक चिंता, भय, उलझनें, कर्त्तव्य की जिम्मेदारी, आत्म सम्मान की रक्षा, मन पर अपनी प्रभुता जमाना, आत्म हीनता की भावना ग्रन्थि, कमरे का दूषित वातावरण, उदर में गड़बड़ी, किसी अंग में चोट, आँख दुखना, बुखार आना आदि सब कारण अनिद्रा की मानसिक व्याधि उत्पन्न करते हैं।

with warm regard's
Dr.Kuldeep singh chauhan
BAMS MD, panchkarm & psychiatrist
Marma Therapist
supar spacialist- chronich & psycho deseas.
Rampur, Uttar Pradesh, india
Mob:09411036703⁠⁠[12/12/2015,

मानसिक रोग : Psychological diseases

रोगों के प्रकार और उनका वर्गीकरण
(Kinds of disease and their classification)

आयुर्वेद के अनुसार स्वास्थ्य की दृष्टि से हमारे शरीर के रोगों के विभिन्न पहलुओं को निर्धारित किया है जो निम्न हैं-

आध्यात्मिक।
मानसिक।
शारीरिक।

Ayurved classified different aspects of the disease of our body in he point of view of health which has been given below-

Spiritual
Mental
Physical

आध्यात्मिक रोग : शरीर, मन और आत्मा का ऐसा घनिष्ठ सम्बंध होता है कि जो लोग शारीरिक रूप से स्वस्थ होंगे। उनकी आत्मा भी स्वस्थ होगी। इस संसार को बनाने वाले ईश्वर में अविश्वास करना ही सबसे बड़ा आध्यात्मिक रोग होता है। असत्य बोलना, अज्ञानता आदि रोग भी इसी के अर्न्तगत आते हैं।

Spiritual diseases:           There is a mutual relationship among body, mind and soul. Soul of those persons will be healthy who are healthy physically. Disbelief in the existence of GOD creator of this world is the biggest spiritual disease. Habit of telling a lie and ignorance come in this category too.

मानसिक रोग : मानसिक रोग हमारे स्वास्थ्य की दृष्टि से शारीरिक रोगों से भी अधिक खतरनाक और अनिष्टकारी होते हैं। मानसिक रोगों के उत्पन्न होने का कारण विभिन्न प्रकार की छोटी-छोटी सी बातें होती हैं। यद्यपि हम इन छोटी-छोटी बातों को अपने विवेक से सुलझाकर मानसिक रोगों से आसानी से बच सकते हैं। मानसिक रोगों के अन्तर्गत घृणा, प्रतिहिंसा, आलस्य, लोभ, चिंता, अहंकार, निराशा, ईर्ष्या, अज्ञानता, भय, कामलिप्सा, असहिष्णुता, अविश्वास, स्वार्थपरता मानसिक उन्माद और वहम आदि होते हैं।

Mental diseases: Mental diseases are more dangerous and harmful than the bodily diseases for our health. Different kinds of tiny things are responsible for the appearance of mental diseases. We can avoid from such kinds of disease by adopting some tiny precautions and by our patience. Hatred, revenge, laziness, greed, anxiety, proud, dejection, envy, ignorance, fear, involvement in sex, intolerance, disbelief, selfishness, suspicion and mental craziness are some mental diseases.

वैसे तो देखने में मानसिक रोग, शारीरिक रोगों से अलग प्रतीत होते हैं किन्तु उनके कारणों में भिन्नता नहीं होती है। इसके उत्पन्न होने का एकमात्र कारण भी शरीर में उपस्थिति विजातीय द्रव्य होते हैं। जब शरीर में विजातीय द्रव अधिक बढ़ जाता है तो वह पीठ की ओर से रीढ़ की हडि्डयों से होता हुआ मस्तिष्क की कोमल ज्ञानेन्द्रियों को प्रभावित करता है। शरीर की जीवनशक्ति के ह्यस और अप्राकृतिक जीवन के फलस्वरूप पाचनशक्ति के खराब होने से विजातीय द्रव्य धीरे-धीरे शरीर में एकत्र होकर मानसिक रोगों को उत्पन्न कर देते हैं। इन रोगों का होना अथवा न होना विजातीय द्रव्य की वृद्धि और मात्रा पर निर्भर करता है। पृष्ठ भाग में विजातीय द्रव्य का भार बढ़ जाने से आमाशय की नाड़ियों, सुषुम्ना आदि पर अधिक प्रभाव पड़ता है जो मानसिक रोगों का प्रमुख कारण होता है। जो व्यक्ति संयमी और सात्विक विचार रखने वाले होते हैं उन्हें मानसिक रोग कम होते हैं।⁠⁠

Thx dr. Amit ji, dears group members, Generally, mental diseases seem quite different than the physical diseases but there is no difference in their causes. Presence of heterogeneous liquids is the only cause of the appearance of diseases in the body. When heterogeneous liquids enhances in the body and affect to the soft and tender senses of mind by the way from back to the backbone, digestion power and vital power of the victim reduces after slowly gathering of the heterogeneous liquids in the body and the victim becomes the victim of mental diseases. Appearance and lack of appearance of such kinds of diseases depends on the quantity of heterogeneous liquids. If weight of heterogeneous liquids increases in the front portion of the body, nerves of the stomach and major nerve get affected very much which are the main cause of mental disease. People who are sober and sincere hardly become the victim of mental diseases.

मेरे अपने अध्ययन के अनुसार मानसिक रोग अथवा मनोविकार शारीरिक स्नायु के मार्ग को अवरुद्ध करके, तन्तुओं को नष्ट करके जीवन शक्ति की क्रिया में बाधक होकर मल को शरीर से बाहर निकलने से रोक देते हैं। इससे शारीरिक रोग अधिक हानिकारक हो जाते हैं। धैर्य का अभाव होना,क्रोधी और चिड़चिडे़ स्वभाव से बुखार बढ़ता है। शरीर में खून की कमी, हृदय रोग, हिस्टीरिया,
स्नायु की दुर्बलता, वीर्य दोष यहां तक कि लकवा और टी.बी. जैसी खतरनाक बीमारियों के उत्पन्न होने का मूल कारण मानसिक विकार ही होते हैं। यह एक सच्चाई है कि हमारे शरीर के लगभग
90 प्रतिशत रोग केवल मानसिक विकार के कारण होते हैं। अब मै आप लोगों को कुछ मानसिक रोगों के बारे में जानकारी देना प्रारम्भ कर रहा हूँ जो की निम्नलिखित हैं। यदि बीच में कोई कुछ पूंछना चाहे तो पूछ सकता है।⁠⁠

भय : भय एक मानसिक रोग है। भय का आघात स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक होता है। भय से पीड़ित व्यक्ति की कभी-कभी मृत्यु भी हो जाती है। जब किसी के शरीर में भय की भावना उत्पन्न होती है तो उसका शरीर विष से भर जाता है तथा हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। इससे आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है और कभी-कभी आंखों की रोशनी हमेशा के लिए समाप्त हो जाती है। भय से पीड़ित व्यक्ति की भूख और प्यास समाप्त हो जाती है तथा दस्त आदि के साथ-साथ विभिन्न शारीरिक विकार हो जाते हैं। भय से व्याकुल रोगी थर-थर कांपते हुए निर्जीव सा हो जाता है।

क्रोध : क्रोध भी एक हानिकारक मानसिक रोग है। इसके विभिन्न रूप होते हैं। जब किसी व्यक्ति को क्रोध आता है तो उसके शरीर में तीव्र विष की उत्पत्ति होती है। क्रोध खून को जला देता है तथा शरीर की सभी ग्रंथियां `एड्रिनलीन` नामक एक विषैला रासायनिक पदार्थ उत्पन्न करती हैं जो रक्त में मिल जाती हैं। यदि किसी व्यक्ति को अधिक क्रोध आता है तो क्रोध के कारण उसकी पाचनशक्ति कमजोर हो जाती है तथा भोजन के पाचन में सहायक रस विष में परिवर्तित हो जाता है।⁠⁠

चिंता : हमें किसी भी समस्या के आने पर विचलित नहीं होना चाहिए। यदि हम किसी बात को लेकर चिंतित होते हैं तो इसका हमारे शरीर बहुत अधिक बुरा प्रभाव पड़ता है। चिंता करना शारीरिक स्वास्थ्य और सुंदरता का सबसे बड़ी दुश्मन मानी जाती है। किसी बात का भय होने से चिंता उत्पन्न हो जाती है। चिंता करने से भी क्रोध के समान ही हमारे शरीर के रक्त में रासायनिक परिवर्तन होता है जिसके कारण शरीर का रक्त अशुद्ध होकर सूखने लगता है। जिसके परिणामस्वरूप शरीर सूखकर कांटा हो जाता है। शरीर की त्वचा की चमक समाप्त हो जाती है, होंठों का रंग फीका पड़ जाता है, नाक गीली हो जाती है और गाल भी पिचक जाते हैं। ऐसे रोगियों की पाचन क्रिया शीघ्र ही प्रभावित हो जाती है जिसके कारण व्यक्ति टी.बी. से ग्रस्त हो जाता है। चिंता ग्रस्त रोगी को नींद नहीं आती है और उसे अपना जीवन भार के समान लगने लगता है।

ईर्ष्या-द्वेष : किसी से भी ईर्ष्या-द्वेष रखना मानसिक रोगों के अन्तर्गत आता है। मनोवैज्ञानिकों और आधुनिक औषधि विज्ञान ने अपनी खोजों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि ईर्ष्या-द्वेष शरीर के लिए उतना हानिकारक हो सकता है जितना की तपेदिक और हृदय रोग। ईर्ष्या से हमारे शरीर के रक्त में विष का संचार हो जाता है। जब ईर्ष्या और द्वेष अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाते हैं तो इससे पागलपन उत्पन्न हो जाता है।

वहम (हाइपोकोण्ड्रिआसिस)-

हमारे मनोजनित रोगों में वहम प्रधान है। मानव मन में सन्देह, शंका तथा अहित कल्पना की जो मूल प्रवृत्ति है, वह वहम की जननी है। वह मूढ़ता एवं अज्ञानाँधकार के फल स्वरूप उत्पन्न होता है। मनुष्य अपने विषय में तनिक भी बुराई नहीं सुन सकता। यदि कोई झूठ-मूठ कुछ अप्रिय या चिंतनीय बात कह दे तो उसे अंतर्मन तुरन्त स्वीकार कर लेता है और वह क्रमशः बढ़ता रहता है। अनपढ़, गंवार, अशिक्षित व्यक्तियों तथा विशेष रूप से पुराने विचार वाली स्त्रियों में बहुत वहम होता है। यह दुर्बल चित्त का क्षुद्र मनोविकार है। दुर्बल इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति शंकित होते हैं और अपने वहम के कारण नरक की यातनाएँ भुगतते हैं। ऐसे व्यक्ति कुतर्कवादी, संशयी, अविश्वासी, चिन्तित, निराशावादी, अतृप्त, असंतोषी चित्त के होते हैं

उत्तेजना-(Excitement)

उत्तेजना से मन की प्रकम्पना तीव्र हो उठती है, नसों में यकायक तीव्रता आ जाती है। अन्तःकरण में अनावश्यक धुकपुक मच जाती हैं और किंचित काल के लिए हाथ पाँव फूल जाते हैं। कुछ समय के लिए सम्पूर्ण शरीर आन्दोलित हो जाता है। उत्तेजना का प्रभाव विशेषतः हृदय पर पड़ता है जिसके फल स्वरूप वह निज कार्य यथोचित रीति से नहीं कर पाता। श्वास फूल उठती है और छाती में शूल उत्पन्न होती है। उत्तेजना का मुख्य कारण मन में एकत्रित अनेक प्रकार के मिथ्या भय हैं। वे अनायास ही एकाएक विकृत होकर प्रकट हो जाते हैं और हम थोड़ी देर के लिए अस्त-व्यस्त हो उठते हैं। कपोल कल्पित दुःखों या कोई तीव्र रोमाँचकारी (Sensational) अनुभव, वृतान्त, कविता से मनोविकारों का विस्फोट होता है और मनुष्य को उत्तेजना होती है।⁠⁠

उद्वेग-

उद्वेग मन की अस्त-व्यस्त अवस्था है जो निष्फलता से उत्पन्न निराशा से जन्म लेता है। उद्वेग भय का मुख्य अंग है। इससे मन में बड़ी घबराहट उत्पन्न होती है। मानसिक उद्विग्नता के कारण अनेक व्यक्ति पागल हो जाते हैं। ज्ञान तन्तु की निर्बलता, निश्चय बल की क्षीणता, मनोविकारों का प्रतिकूल दिशा में वेग, रुग्णयकृत के कारण हृत्पिंड या अनहित चक्र में संकोचन-उद्वेग के मुख्य कारण हैं। उद्वेग से जीवन शक्ति का ह्रास होता है, बहुत से भय झूठ-मूठ दिखाया करता है और समस्त जीवन को नीरस बना देता है।⁠⁠

अति चिन्तित अवस्था (Anxiety state)-

अनहोनी, अनिष्ट, बुरी बातों की थोथी कल्पनाएँ दूसरों की बुरी हालत देखकर स्वयं अपने लिए भी वैसी ही स्थितियों को स्मृति पटल कर पुनः पुनः लाना, अपनी व्याधियों को कल्पित जगत में उद्दीप्त करके देखना, अनुचित बातों से कल्पना लोक में सामंजस्य स्थापित करना, चिंता के मुख्य कारण हैं। व्यर्थ की प्रतिकूलताओं से परेशान रहने से मन बड़ा क्षुब्ध, अशान्त रहता है। हमें संसार के समस्त व्यक्ति अपने शत्रु नजर आते हैं। हमारा मन डाँवाडोल, खोया-खोया सा, निर्जीव, शिथिल मालूम होता है। अन्तःकरण अन्धकार से आवृत्त हो जाता है। निःसार वस्तुओं के चिंतन में हम निष्प्रयोजन जीवन शक्ति का अपव्यय करते हैं। निराशा, चिंता तथा ऊल जलूल बातों से विकसित होकर क्षय रोग उत्पन्न होता है, रात दिन जो व्यक्ति दुःख, शोक, रोग की कल्पनाओं से आच्छादित रहते हैं, दुःखमय स्थिति का ही चिंतन किया करते हैं, वे भिन्न-भिन्न रोगों से ग्रस्त होकर जीवन अन्त करते हैं।