Saturday, December 12, 2015

Common Psychological diseases

हेल्थ टुडे परिवार के सदस्यों कल की जानकारी को आगे बढ़ाते हुए कुछ और मानसिक रोगों की जानकारी प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। यदि किसी को कोई लक्षण स्वयं में महसूस होते हो तो मुझसे या फिर किसी मनोचिकित्सक से सलाह जरूर ले लेकिन अपनी तरफ से कोई धारणा ना बनायें।
डॉ कुलदीप सिंह चौहान, आयुर्वेदिक मनोचिकित्सक।

हिस्टिरिया-

हिस्टिरिया का मानसिक रोग प्रायः अतृप्त कामेच्छा से सम्बन्ध रखता है। अविवाहित स्त्रियाँ या निःसंतान वधुएँ इसकी शिकार बनती हैं। शारीरिक कमजोरी, अत्यधिक घबराहट, उत्तेजना, उद्वेग, आकस्मिक दुःख मस्तिष्क के संतुलन को अस्त-व्यस्त कर देते हैं और अज्ञात चेतना की अतृप्त वासनाएं भयंकर विस्फोट कर देती हैं।

अन्यमनस्कता-

इस प्रकार की भ्रमित मानसिक स्थिति में रोगी, न उत्तेजित रहता है, न निरुत्साहित। वह बिल्कुल अन्यमनस्क रहता है। उसका मन शून्य मय हो जाता है। चेतना विचार, बुद्धि कुछ काल के निमित्त बिल्कुल स्थिर हो जाती है। जहाँ बैठा दो, वहीं निष्प्रभ, निश्चेष्ट बैठा रहेगा। न कुछ इच्छा प्रकट करेगा न अभिलाषा। उसकी मुख मुद्रा से यह स्पष्ट नहीं होता कि आखिर वह चाहता क्या है। यदि उससे कुछ पूछो तो वह सुनी अनसुनी कर देता है या बड़ा बेढंगा, अपूर्ण, अस्पष्ट, निरर्थक उत्तर देता है। भिन्न-भिन्न प्रकार की मानसिक न्यूनताएँ, मस्तिष्क के विभिन्न क्रिया-केन्द्रों की समुचित परिपक्वता न होने से यह व्याधि उत्पन्न होती है।

आत्मग्लानि-

“हमसे कोई महापाप हो गया, अब मोक्ष नहीं हो सकता, मैंने सर्वनाश कर लिया, इतनी भारी गलती करके मुझे जीवित नहीं रहना चाहिए”- ऐसे विचारों को लेकर रोगी बड़ा पछताता दुःखी होता है। कुछ दिन पूर्व हमारे पास एक ऐसा ही रोगिणी आई थी जिसे बीमारी में कुछ अपवित्र दवाइयाँ दी गई थीं। वह कहा करती थी “मैंने बकरे खाये हैं, उनकी हड्डियों को चबाया है, अक् थू अक् थू।” ऐसा कहकर वह थूकती और हलक में उँगली डालकर उल्टी करने का उपक्रम करती।

आत्म-हीनता (Inferiority)-

अनेक व्यक्ति इतने संकोची, लज्जाशील होते हैं कि महान अपराधी की तरह चुप्पी धारण किए रहते हैं और हमेशा नीची दृष्टि किए रहते हैं। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ करता है कि संसार उनकी प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक हाव-भाव, कपड़े, जूते, टोपी सब कुछ घूर-घूर कर देख रहा है, जैसे पत्थर-पत्थर में हजारों नेत्र हों और सबकी सब उसे हड़प जाने को प्रस्तुत हों। आत्महीनता का प्रधान कारण भय है। रोगी के मानसिक संस्थान में उसका अंश अत्यन्त अधिक मात्रा में होता है। वह सब प्रकार की सभा समाजों, मनुष्यों की भीड़ से हटता है, हमेशा शर्मिंदा रहता है और अपने आपको दीन, हीन, दुर्बल, क्षुद्र, अपराधी मानता है। यह बड़ा अविश्वासी होता है। आत्महीनता के लक्षण ये हैं- आंखें नीची कर लेना, सकपका जाना, चेहरे पर सुर्खी दौड़ जाना, घबरा सा जाना, किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाना, चुपचाप दूसरे की अनुचित बातें स्वीकार कर लेना, उदासीन गंभीरता धारण कर लेना। ऐसे रोगी को अपने छोटे-मोटे दोष अक्षम्य अपराध की तरह दीखने लगते हैं और कई बार दारुण मानसिक यातना भोग कर रोगी आत्महत्या तक कर लेता है।

कायरता-

एक प्रकार की कुत्सित मानसिक दुर्बलता है। ऐसा व्यक्ति प्रत्येक कार्य को संदिग्ध चित्त से सम्पन्न करता है। मनोवैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि कायरता जन्मजात दुर्गुण नहीं है। कायरता एक प्रकार की आदत है और क्रमशः धीरे-धीरे और आदतों के समान उत्पन्न होती है। अव्यक्त प्रदेश में अनेक वर्षों में संकलित अशुभ संस्कारों का परिणाम है। कायरता तथा निराशावाद साथ-साथ रहती हैं। कायर मनुष्य जरा-जरा सी बातों में दब कर नर्क की यन्त्रणाएँ भोगा करता है।

भय-

परमात्मा ने मनुष्य को वीर और साहसी बनाया था किन्तु संसार में अनेक मनोजनित शंकाओं ने उसे डरपोक बना डाला है। प्रत्येक असफलता और प्रायः सब दोषों के अन्त में किसी न किसी प्रकार का भय मिला रहता है। भय शंका का किला है। भय के कारण मस्तिष्क की कार्यवाहिनी शक्ति विकृत अथवा संकुचित हो जाती है इससे केन्द्रित मंडल में उत्तेजना होती है और चक्कर आना, अपचन, मस्तिष्क पीड़ा, अस्थिरता, उत्पन्न होती है। जरा-जरा सी प्रतिकूलता से वह उद्विग्न हो जाता है और उसके दिमाग में क्रोध, ईर्ष्या, चिंता, अशाँति, घबराहट, चंचलता, आशंका, अनिष्ट प्रस्फुटित हो जाते हैं।

सनक (श्वष्ष्द्गठ्ठह्लह्द्बष्द्बह्लब्)-

सिरड़ीपन, बोरहा पन अव्यक्त के अशुद्ध संस्कारों के परिणाम स्वरूप अस्थिर चित्तवालों में उत्पन्न होता है। यह शैशवावस्था की दबाई गई प्रवृत्तियाँ को प्रकाशन है। आरम्भिक दमन क्रिया से (Repression) अज्ञात चेतना में कुछ भावना ग्रन्थियाँ बनती हैं और ये सुप्त मनोवृत्तियाँ समय-समय पर उमड़ कर ऊपर जाग्रत चेतना की सतह पर पहुँचने की चेष्टा करती हैं। उन्हें गुप्तवेश धारण करना पड़ता है। सनक इन्हीं दलित भावनाओं का निदर्शन है। वास्तव में यह हमारी अज्ञात चेतना से उठे हुए मनोविकारों को समूह मात्र है।

कामातुरता (Sexual Obsession)-

कितने ही व्यक्तियों के मन में कामुकता के विकार बड़े तीव्र उठते हैं। वे क्षण भर में समस्त पवित्रता, ज्ञान, शिक्षा इत्यादि भूल जाते हैं और हृदय मलीन विचारों से आवृत्त हो जाता है। कामविकार एवं नैतिकता के भीतरी संघर्ष से मनुष्य छटपटाने लगता है। अन्तर्द्वन्द्व परोक्ष रूप में विभिन्न रूपों में प्रस्फुटित होता है और दैनिक कार्यों में अनेक विकृतियां उत्पन्न होती हैं। अतृप्त कामवासना, प्रमाद नपुँसकता, वैराग्य की व्याधियाँ सृजन करती है। विकारमय अनिष्ट विचार मानसिक दुर्बलता की वृद्धि करते हैं। भद्दे मजाक, गालियाँ, गुप्ताँग का बारंबार स्पर्श करना, अश्लील व्यवहार, गंदी चेष्टाएँ, अति बनाव शृंगार, गाने गाना, स्वप्नदोष, बारबार मूत्र त्याग, मुंहासे, दुराचार, चित्त का अति चंचल रहना, क्षण-क्षण अपने विचारों का परिवर्तन करना, दिमाग में गर्मी छा जाना, नेत्रों में जलन, क्षण भर में रुष्ट एवं क्षणभर में प्रसन्न हो जाना, माथे, कमर तथा मेरुदंड में दर्द, दाँत के मसूड़े फूलना। शरीर से बदबू निकलना, कँपकँपी आना, हाथ पैर में सनसनी दौड़ जाना, अज्ञात चेतना में छुपी हुई अतृप्त अशान्त कुचली हुई वासनाओं से उत्पन्न होते हैं। पर छिद्रान्वेषण तथा (Projection) आरोप-

अनेक व्यक्ति पर दोषदर्शन, परनिंदा, बैर, ईर्ष्या की भट्टी में भस्मीभूत हुआ करते हैं। वे अपने मानसिक दोष दूसरों में परिलक्षित देखते हैं और उन दूसरों के कल्पित दोषों को अपनी कठिनता एवं असफलता का मूल कारण मानते हैं। यह स्वार्थ का नग्न स्वरूप है। इस मनोवृत्ति के कारण हम निरन्तर अपने दोष दूसरों पर आरोपित किया करते हैं अनेक व्यक्ति अकारण ही द्वेषी होते हैं यों ही संत-साधु-शास्त्र इत्यादि का विरोध किया करते हैं। ईश्वर का खंडन करने वाले, दम्भी, अभिमानी, पर निंदा परायण, अन्यायकारी व्यक्ति एक भयंकर मानसिक व्याधि के शिकार हैं, उन्हें चहुँ ओर दोष, न्यूनता, कमी ही दृष्टिगोचर होती हैं। यह मनोवृत्ति स्वार्थपूर्ण ईर्ष्या की सन्तान हैं तमोगुणी प्रधान व्यक्ति इससे परेशान रहते हैं।

विकृत मानसिक प्रवृत्ति (Obsessive neuroses)

यह मानसिक कष्ट मस्तिष्क के केन्द्रों में निर्बलता होने से उद्भूत होता है। रोगी का अंतर्जगत अत्यन्त आवेग मय होता है किन्तु वह क्षोभ में निरन्तर जला करता है। जरा-जरा सी बातों में शंका, दुःख, संदेह उसके मानसिक केन्द्रों को घोर अंधकाराच्छादित बना कर उसे परेशान रखते हैं। अज्ञानावस्था में ही उसके मिथ्या डर, शोक, पीड़ा उत्थित होकर उसे अशान्त और विक्षुब्ध रखते हैं। चेतना में किसी विरोधी शंका के प्रविष्ट होते ही वह कुढ़ने लगता है और अस्त-व्यस्त हो जाता है।

गुमसुम हो जाना (Apathy)-

भयंकर मानसिक आघात से यकायक मानसिक शून्यता उत्पन्न हो जाती है। रोगी का अन्तःकरण अकस्मात अंधकारमय हो जाता है। चेतना, बुद्धि, विवेक, तर्क, प्रेरणा अपने कार्य कुछ देर के लिए बन्द कर देती हैं और वह किंकर्तव्य विमूढ़ सा होकर न बोलता है, न क्रिया करता है, न उसे संसार में ही कुछ दीखता है। यद्यपि उसके नेत्र खुले रहते हैं किन्तु वह खोया-खोया सा प्रतीत होता है- जैसे उसके मस्तिष्क के सूक्ष्म केन्द्रों को लकवा मार गया हो। कभी-कभी ऐसे मानसिक आघातों से रोगी जीवन पर्यन्त शून्य मनस्क रह सकता है। इस विकृति में श्रवण, स्मरण एवं ग्रहण शक्ति का ह्रास हो जाता है।

मानसिक थकावट (Mental over-strain)-

अन्तर्द्वन्द्व, चिंता, उद्वेग, निरंतर एक ही प्रकार का मानसिक कार्य करते रहना। उसे बोझ समझ कर करते रहना, अस्त-व्यस्त मानसिक अवस्था में पढ़ना] लिखना, अधिक बोलना, एकान्त स्थान में लगातार बैठ कर पढ़ते रहने से मानसिक थकावट उत्पन्न होती है। सर में दर्द, मन में निष्क्रियता होने लगती है, किसी काम में जी नहीं लगता। रोगी जो कार्य हाथ में लेता है उसी से जी उचटता है। वह इधर-उधर निष्प्रभ सा घूमता है। उसे ऐसा अनुभव होता है जैसा पर्वतों का बोझ उसके मन पर हो। जीवन के वे क्षण उसे बोझ स्वरूप प्रतीत होते हैं। कई दिन तक वह विक्षुब्ध, उद्विग्न एवं चिंतित सा दिखाई देता है।

भयंकर स्वप्न-

स्वप्न हमारी हार्दिक इच्छाओं सूक्ष्म भावनाओं, अनुभूतियों, अतृप्त अपूर्ण मनोवांछाओं, यातनाओं, शारीरिक कष्टों का क्रियाशील अस्तित्व है। हमारी दलित वासनाओं से इसका चिरस्थायी, अटूट तथा शाश्वत सम्बन्ध है। यह एक ऐसा दर्पण है जिसके विश्लेषण द्वारा हमें मनुष्य के मानसिक कष्टों का परिचय हो सकता है। जब मानव, दानवीय यातनाओं, शारीरिक कष्टों और साँसारिक चिंताओं से आवृत रहता है तो उसे बड़े-बड़े भयंकर स्वप्न दीखते हैं, वह चिल्लाने की कोशिश करता है, घिग्घी बँध जाती है और उसे अत्यधिक मानसिक क्लेश होता है। दुश्चिंता, शारीरिक अपवित्रता, मद्य माँस, तामसिक भोजन, अतृप्त कामेच्छा, कल्पित भय, भूत प्रेतों का डर, तंग कपड़े, मानसिक दुर्बलता, रौद्र स्वप्नों के प्रधान कारण हैं।

प्रमाद (Insanity)-

इस रोग में रोगी का मानसिक संतुलन विकृत हो जाता है। पागल यह नहीं समझता कि वह रोगी है। उसे यह अनुभव तक नहीं होता कि उसके मानसिक क्षेत्र में कुछ परिवर्तन हुआ है। प्रमाद अधिकतर किसी भयंकर आघात (Shock) जैसे किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु, व्यापार में भारी हानि, अत्यधिक भय, बुरा व्यवहार, अतृप्त कामेच्छा, प्रेम में सन्देह, पति के द्वारा अत्याचार इत्यादि कारणों से होता है। अव्यक्त की क्रान्तिकारी वासनाएँ विद्रोही होकर अकस्मात विद्रोही बन जाती हैं।

निद्रित अवस्था में चलना फिरना (Somnambulism)-

रोगी निद्रावस्था में ही चलता फिरता, उठता बैठता, तथा अनेक आश्चर्यजनक कार्यों को सुचारु रूप से सम्पन्न करता है जिनके सम्बन्ध में कोई जानकारी उसे जाग्रत अवस्था में नहीं रहती। डा. मेचनिकाफ ने सैम्बुलिज्म के एक रोगी का वातान्त लिखा है-”जो एक बार किसी अज्ञात आशंका से भयभीत होकर पनाले के पाइप को पकड़ता हुआ एक बहुत ऊँचे मकान की छत पर चढ़ गया तथा एक मुंडेर पर से दूसरे पर बन्दरों की तरह कूदता हुआ दूसरे मकान की मुँडेर पर कूद गया। इसके अनन्तर जिस प्रकार ऊपर चढ़ा था, उसी प्रकार बन्दर की तरह बिना किसी खरोंच के नीचे उतर आया। न तनिक भी उसका पाँव फिसला, न किसी प्रकार की चोट आई। इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सोम्नेम्बुलिज्म की अवस्था में उस व्यक्ति की अज्ञात चेतना में लाखों वर्षों से दबे हुए मनुष्य के वानर जातीय संस्कार जग पड़े थे।”

अनिद्रा या इन्सोमिनिया-

एडलर महाशय अनिद्रा को स्वयं तो रोग नहीं मानते किन्तु आने वाले किसी भयंकर मानसिक कष्ट की उपस्थिति का लक्षण मानते हैं। रोगी अत्यन्त चिंतित, विक्षुब्ध एवं परेशान रहता है और बिस्तर पर पड़े-पड़े निद्रा की प्रतीक्षा देखा करता है। प्रायः इन्सौमिनिया का रोगी अपने आन्तरिक क्लेश इतने बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन करता है कि चिकित्सक को संदेह हो जाता है कि कहीं वह केवल बहाना तो नहीं कर रहा। अत्यधिक चिंता, भय, उलझनें, कर्त्तव्य की जिम्मेदारी, आत्म सम्मान की रक्षा, मन पर अपनी प्रभुता जमाना, आत्म हीनता की भावना ग्रन्थि, कमरे का दूषित वातावरण, उदर में गड़बड़ी, किसी अंग में चोट, आँख दुखना, बुखार आना आदि सब कारण अनिद्रा की मानसिक व्याधि उत्पन्न करते हैं।

with warm regard's
Dr.Kuldeep singh chauhan
BAMS MD, panchkarm & psychiatrist
Marma Therapist
supar spacialist- chronich & psycho deseas.
Rampur, Uttar Pradesh, india
Mob:09411036703⁠⁠[12/12/2015,

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